योग के ये आठ अंग -
'यम' : पांच सामाजिक नैतिकता
अहिंसा – शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना
सत्य – विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना
अस्तेय – चोर-प्रवृति का न होना
ब्रह्मचर्य – दो अर्थ हैं:
चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना
सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना
अपरिग्रह – आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की
इच्छा नहीं करना
'नियम': पाच व्यक्तिगत नैतिकता
शौच – शरीर और मन की शुद्धि
संतोष – संतुष्ट और प्रसन्न रहना
तप – स्वयं से अनुशाषित रहना
स्वाध्याय – आत्मचिंतन करना
इश्वर-प्रणिधान – इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा
आसन': योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण
प्राणायाम': श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण
'प्रत्याहार': इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना
'धारणा': एकाग्रचित्त होना
'ध्यान': निरंतर ध्यान
'समाधि
जब साधक ध्येय वस्तु के ध्यान मे पूरी तरह से डूब जाता है और उसे अपने अस्तित्व का ज्ञान नहीं रहता है तो उसे समाधि कहा जाता है।
समाधि समयातीत है जिसे मोक्ष कहा जाता है। ।
जो व्यक्ति समाधि को प्राप्त करता है उसे स्पर्श, रस, गंध, रूप एवं शब्द इन 5 विषयों की इच्छा नहीं रहती तथा उसे भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान तथा सुख-दु:ख आदि किसी की अनुभूति नहीं होती।
चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है।
इस स्थिति में व्यक्ति तीनों सामान्य चेतनाओं - सोने, जागने और सपने देखने की अवस्थाओं से परे किसी चौथी अवस्था में चला जाता है।
समाधि की स्थिति में व्यक्ति का अहंकार पूरी तरह से नष्ट हो जाता है। व्यक्ति प्रबुद्ध हो जाता है, उसे आत्मज्ञान हो जाता है। और फिर वो सदा - सदा के लिए जन्म-मृत्यु (आवागमन) की बेड़ियों के बंधन से मुक्त हो जाता है।
समाधि में कुछ भी तार्किक नहीं है। पूरी तरह से अपनी सभी सचेतन शारीरिक गतिविधियों को बंद कर देता है
यह एक विचारशून्य अवस्था है, -
साधना का तात्पर्य है कि सन्नद्ध हाे जाना, तैयार हाे जाना स्पस्ट हाे जाना ।
प्रातः काल जल्दी उठ जाइए
सिद्धासन, पद्मासन एवं वज्रासन मे बैठने का नियमित अभ्यास कीजिए ।
मुख पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए।
शुद्ध घी का दीपक जला लें। दीपक जलाने के लिए घी अच्छी क्वालिटी का ही होना चाहिए ।
10 मिनट अनुलोम विलोम नाड़ी शोधन प्राणायाम अंतः कुंभक एवं बाह्य कुंभक
नाभि में उगते हुए सूर्य का ध्यान कीजिए।
प्राण को नाभि तक गहरा भरें अर्थात पूरक क्रिया संपन्न करें।
ध्यान करते हुए अंतः कुंभक करें ।
यह बुराई, यह दुर्गुण श्वास के साथ बाहर जा रहा है । इस प्रकार का चिंतन करते हुए रेचन क्रिया करें।
स्वास को बाहर छोड़ने के पश्चात तुरंत श्वास अंदर नहीं ले और
यथासंभव बाह्म कुंभक करें। जब बाह्म कुंभक करें उस समय
ध्यान को आज्ञा चक्र पर ले आए
और श्वेत शीतल प्रकाश का आज्ञा चक्र पर ध्यान करते रहें।
तत्पश्चात लगभग 3 मिनट कपालभाती प्राणायाम करें । ध्यान नाभि पर ही करें ।
अंत में
2 मिनट भ्रामरी प्राणायाम सहस्रार चक्र में चंद्रमा के समान श्वेत शीतल प्रकाश का ध्यान
संपूर्ण रीड को बिल्कुल सीधी रखते हुए ध्यान मुद्रा में बैठ जाइए
आज्ञा चक्र पर श्वेत शीतल प्रकाश से युक्त सूर्य का ध्यान करते हुए 30 मिनट तक गायत्री महामंत्र का मौन मानसिक जप
लाल आभा से युक्त तीव्र प्रकाश का ध्यान नहीं करें वरना आज्ञा चक्र पर जैसे ही ध्यान स्थिर होगा नींद आने में अत्यधिक समस्या उत्पन्न हो जाएगी।
ध्यान समाप्त करें तो एकदम से आंखें नहीं खोलें।
तीन बार गायत्री महामंत्र का जप करते हुए तुलसी के पौधे या अन्य किसी पौधे पर भगवान सूर्यनारायण को अर्घ स्वरूप समर्पित कर दें ।
प्रत्येक प्रारंभिक साधक के लिए यह अभ्यास 3 महीने के लिए है ।
और साधना विचाराें से नहीं होती ,साधना ताे तन और मन से जीवन मे तीव्रता के साथ तीव्र गति से आगे बढने की क्रिया है ।
मन काे ताे आधार चाहिये आगे बढ्ने के लिए,
इस प्रकार शरीर काे साधने की क्रिया का नाम साधना है । इस प्रकार मन काे साधने की क्रिया का नाम साधना है
इस जीवन काे पूर्णता के साथ अपने नियंत्रण में लेने की क्रिया का नाम साधना है ।
साधक हाेने के लिए जरूरी है कि यह शरीर अपने-आप में सधा हुआ हो।
योग शब्द का अर्थ है मिलन। योगी वो है जिसने इस मिलन का अनुभव कर लिया है। इसका मतलब है, कम से कम एक क्षण के लिए, वो पूर्ण शून्यता बन चुका है।
समाधि का अर्थ होता, समय के पार चले जाना और समय के पार कोई तब तक नही जा सकता जब तक वो भूत, और भविष्य की चिंतन को बंद कर के वर्तमान में "जड़" नही हो जाता।
शून्यता का दूसरा नामः ही वर्तमान हैं।
तब चेतना शून्यता में प्रवेश करना शुरू कर देती, और शून्यता का कोई सीमा नही होती
वहाँ से "महाशून्याता की सीमा की शुरुआत होती है
महाशून्या का मतलब होता जो एक सत्ता हैं जिसे विराट बोला जाता जहाँ
प्रकाश की सीमा इतना विराट रूप ले लेती की इंसान की चेतना उस विराट परम "प्रकाश" में विलीन होने लगती है
परमानंद कीअवस्था को ही "पूर्ण समाधिस्थ" बोला जाता है।
संचित कर्म सुषुम्ना नाड़ी में जमा होते हैं। सबसे नीचे मूलाधार चक्र से ऊपर की ओर तमोगुणी सँस्कार संचित होते हैं। तमोगुणी सँस्कार सबसे भारी होते हैं इसलिए सबसे नीचे होते हैं।
उसके ऊपर रजोगुणी सँस्कार उसके ऊपर सतोगुणी सँस्कार होते हैं।
जब कुण्डलनी शक्ति ऊपर उठती है तब सबसे पहले तमोगुणी सँस्कार नष्ट होते हैं। फिर रजोगुणी और अंत में सतोगुणी सँस्कार भी भस्म हो जाते हैं।
मनुष्य तीनों गुणों से ऊपर उठकर निर्गुण की अवस्था प्राप्त कर लेता है। यही अहम ब्रम्हस्मि की अवस्था है।
तंत्र विज्ञान -
तँत्र श्मशान की पवित्र अग्नि की तरह होता हैं । इसकी शिक्षा किताबी ज्ञान की साधना से प्राप्त नही हो सकती ओर ना ही हर किसी के वश का हैं । तँत्र में थोड़े से अपवित्रता या वैचारिक ग़लती भी इंसान को बर्बाद कर देती हैं । तँत्र में माफी शब्द नही होता हैं । तँत्र के लिए उच्चकोटि का साधक तांत्रिक व अगोरि होना आवश्यक है
तंत्र क्रिया में सफलता के आवश्यक सूत्र-
तंत्र का क्षेत्र हो चाहे कोई भी क्षेत्र हो सबसे पहले आवश्यक है सत्यवादिता |
दूसरे क्रम में आवश्यक है अपने गुरु और इष्ट में पूर्ण विश्वास |
लोभ मोह पाखंड का पूर्णता परित्याग और समरसता | बिना राग द्वेष या किसी से प्रभावित हुए बगैर अपने गुरु के द्वारा बताए हुए मार्ग पर और अपने विवेक से उचित मार्ग पर चलता रहे |
तंत्र विद्या केवल मारण मोहन विद्वेषण उच्चाटन और वशीकरण तक सीमित नहीं है बल्कि इस प्रकार के अभिसास कर्म तंत्र को निकृष्टतम रूप है ।
यह तंत्र का विकृत रूप है जो भौतिकता से प्रेरित अपरा तंत्र के अंतर्गत आते हैं वास्तव में तंत्र का शाब्दिक अर्थ है शक्ति स्वातंत्र्य या सरल रूप में कहीं तो चेतना का विकास संस्कृत में तंत्र का अर्थ है तंत्र यानी अंधकार से प्रकाश की तरफ ले जाने वाली विद्या तंत्र है।
मन को उर्ध्वमुखी वृत्तियों की तरफ से ले जाने वाली शक्ति मंत्र है। हमारा मन एक सीमित क्षेत्र तक ही काम करता है क्योंकि हम वही तक देख सुन सकते हैं जहां तक हमारी इंद्रियां आंख कान नाक आदि साथ देती है।
मंत्र जाप मनुष्य की चेतना के विकास का नया आयाम देता है सिद्ध मंत्र और तंत्र मन के अंदर अनंत शक्तियों को विकसित करता है विशिष्ट मंत्रों के जप से एक लयबद्ध ध्वनि तरंग पैदा होती है और इन ध्वनि तरंगों में प्रचुर मात्रा में विद्युत चुंबकीय ऊर्जा होती है जो मनुष्य के सूक्ष्म शरीर के साथ-साथ उसके कारण शरीर को सीधे तौर पर प्रभावित करती है।
दरअसल मंत्र जप में लय का विशिष्ट महत्व होता है कौन सा मंत्र किस लय मे जपने पर क्या प्रभाव दिखाएगा इसकी जानकारी आज के आधुनिक लोग जो अपने आप को मंत्रों का जानकार कहते हैं उनके पास भी नहीं है ।
प्रत्येक मंत्र अलग लय से उच्चारण करने पर बिल्कुल अलग व्याख्या रखता है प्राचीन काल में शिष्य अपने अधिकारी गुरु से मंत्रों को अलग-अलग लय के अनुसार सुनकर याद रखते थे।
तांत्रिक सहित साहित्य में वर्णित अक्षरमाला को समझे बिना वर्ण तत्व या नाद तत्व को समझना बिल्कुल मुश्किल है। और बिना नाथ तत्व को समझे किसी विद्या का अधिकारी नहीं बना जा सकता क्योंकि ऐसा कहा गया है कि शब्द से ही जगत की सृष्टि हुई है और अंत काल में शब्द में ही इस जगत का लयभी होगा ।
इतना ही नहीं एक तरफ जहां सृष्टि के समय महान प्रसरण होता है वहीं दूसरी तरफ लय किस समय अति संकुचन होता है। और इन दोनों से ऊपर स्थिति अच्युत ब्रह्मबिंदु मैं पहुंचने के लिए भी आगे मंत्र रूपी शब्द ही सूत्रधार बनता है सारे देवताओं के उर्जा निर्मित शरीर भी इसी मंत्र में ही ज्योति के द्वारा गठित हुए हैं वास्तव में देवता मंत्र रूप ही है।
पंचाक्षर मंत्र नमः शिवाय और देवी ग्रंथों में नवार्ण मंत्र के बारे में जो लिखा है उनसे इन तथ्यों की पुष्टि की जा सकती है। अ से लेकर अक्षय तक के अक्षर समूह में संयुक्त रूप को ही शब्द कहते हैं शास्त्रों में इन्हें मातृका का कहा गया है। वास्तव में मातृका शक्ति ही इस शब्द राशि को अपने गर्भ में केवल स्पंदनात्मक रूप में धारण करने वाली #पराशक्ति है
तंत्र गुरुगम्य मार्ग है, इसे गुरुजनों से सीखकर नियम पालन करते हुए ही साधना करना फलदायी होता है। अन्यथा साधक पथभ्रष्ट हो पागलपन की कगार पर पहुंच जाता है, कई बार तो मृत्यु भी हो जाती है। तंत्र मार्ग पर चलने के लिए गुरु का मार्गदर्शन अनिवार्य है।
जब कोई साधक तन्त्र से सबंधित कार्य करता है तो उस शक्ति से लड़ना पड़ता है उस शक्ति को पराजित करना पड़ता है। शक्तिया प्रबल परीक्षाएं लेती है यदि असफल हुए तो मृत्यु या जीवन भर का कष्ट प्राप्त होता है।इस मार्ग पर सबकुछ अलौकिक और दिव्य लगता है लेकिन हर पल जीवन पर मृत्यु भी मंडरा रही होती है।
तन्त्र मार्ग में मुक्ति तीव्रता से होती है लेकिन उतना ही कठिन है।
सोऽहम् साधना।-
श्वास लेते समय ‘सो’ ध्वनि का और छोड़ते समय ‘हम’ ध्यान के प्रवाह को सूक्ष्म श्रवण शक्ति के सहारे अन्तः भूमिका में अनुभव करना- यही है संक्षेप में सोऽहम् साधना।
वायु जब छोटे छिद्र में होकर वेगपूर्वक निकलती है तो घर्षण के कारण ध्वनि प्रवाह उत्पन्न होता है। बाँसुरी से स्वर लहरी निकलने का यही आधार है।
नासिका छिद्र भी बाँसुरी के छिद्रों की तरह है। उनकी सीमित परिधि में होकर जब वायु भीतर प्रवेश करेगी तो वहाँ स्वभावतः ध्वनि उत्पन्न होगी।
साधारण श्वास-प्रश्वास के समय भी वह उत्पन्न होती है, पर इतनी धीमी रहती है कि कानों के छिद्र उन्हें सरलतापूर्वक नहीं सुन सकते। प्राणयोग की साधना में गहरे श्वासोच्छवास लेने पड़ते हैं।
प्राणायाम का मूल स्वरूप ही यह है कि श्वास जितनी अधिक गहरी जितनी मन्दगति से ली जा सके लेनी चाहिए और फिर कुछ समय भीतर रोक कर धीरे धीरे उस वायु को पूरी तरह खाली कर देना चाहिए।
चित्त को श्वसन क्रिया पर एकाग्र करना चाहिए। और भावना को इस स्तर की बनाना चाहिए कि उससे श्वास लेते समय ‘सो’ शब्द के ध्वनि प्रवाह की मन्द अनुभूति होने लगें। उसी प्रकार जब साँस छोड़ना पड़े तो यह मान्यता परिपक्व करनी चाहिए कि ‘हम’ ध्वनि प्रवाह विनिसृत हो रहा है।
आरम्भ में कुछ समय यह अनुभूति उतनी स्पष्ट नहीं होती किन्तु क्रम और प्रयास जारी रखने पर कुछ ही समय उपरान्त इस प्रकार का ध्वनि प्रवाह अनुभव में आने लगता है।
और उसे सुनने में न केवल चित्त ही एकाग्र होता है वरन् आनन्द का अनुभव होता है।
जिस अभ्यास में प्राण ,अपान ,मन, बुद्धि ,जीव तथा परमात्मा में जो पारस्परिक निर्विरोध एकता स्थापित होती है "उसे घटा अवस्था "कहा जाता है।
🌞👉 इंद्रियों को उनके इच्छुक विषयों से खींच कर लाना ही प्रत्याहार कहलाता है। उस समय साधक आंखों से जो कुछ भी देखें उसे आत्मवत समझे। जो भी कुछ कर्णेन्द्रिय से श्रवण करें तथा जो भी नासिका द्वारा सूंघे सभी को आत्म भावना से ही स्वीकार करें। जिह्वा के माध्यम से जो कुछ भी ग्रहण करें ,उसको भी आत्म रूप ही जाने। त्वचा से जो कुछ भी स्पर्श हो ,उसमें भी अपनी आत्मा की ही भावना करें।
🌞👉 इस प्रकार के अभ्यास द्वारा जैसे-जैसे योगी की चित्त शक्ति बढ़ती जाती है ,वैसे वैसे उसको दूर श्रवण, दूरदर्शन ,क्षण भर में सुदूर क्षेत्र से आ जाना, वाणी की सिद्धि ,जब चाहे जैसा रूप ग्रहण कर लेना, अदृश्य हो जाना ,आकाश मार्ग से गमन कर सकना आदि सिद्धियां प्रकट होने लगती है। बुद्धिमान श्रेष्ठ योगी सदैव योग की सिद्धि की ओर ही ध्यान बनाए रखें। परंतु ये सभी सिद्धियों योग सिद्धि के लिए विघ्न रूप हैं, बुद्धिमान योगी साधक को इन सिद्धियों का कभी भी किसी के समक्ष प्रदर्शन नहीं करना चाहिए । इसलिए श्रेष्ठ योगी को जनसामान्य के समक्ष अज्ञानी, मूर्ख एवं बधिर की भांति बन कर रहना चाहिए। अपनी सामर्थ्य को सभी तरह से छिपाकर गुप्त रीति से रहना चाहिए।
प्रायः सभी धर्मावलंबी आध्यात्मिकता को भौतिक संसार से विरक्ति हो जाने के डर से अपनाना नहीं चाहते,
आध्यात्मिक जीवन का मतलब भौतिक संसार से विरक्ति नहीं*
हमारे सभी संतो ने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि "धर्म" प्रत्यक्ष अनुभूति और साक्षात्कार का विषय है। केवल विश्वाश का नाम धर्म नहीं है।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में जो उपदेश दिया, और उसमे अर्जुन को जो ज्ञान मिला वहीं सच्चा ज्ञान है। अर्जुन ने उपदेश के बाद जो कार्य किया, जों रास्ता अपनाया वही सही मार्ग है।
साधको के लिए कुछ अनमोल बातें
भक्ति, श्रद्धा , विश्वास एवं धैर्य साधना मार्ग के चार स्तम्भ हैं। कितना भी कष्ट क्यों न आ जाये हमे अपने गुरु, मंत्र एवं देवता को नहीं त्यागना चहिये।
उपासना के तीन भेद कहे गये हैं:-
कायिक
अर्थात् शरीर से , पाद्य, अर्घ्य, स्नान, धूप, दीप, नैवेद्य आदि पंचोपचार पूजन अपने देवी देवता का किया जाता है।
वाचिक
अर्थात् वाणी से देवी देवता से सम्बन्धित स्तोत्र पाठ आदि किया जाता है
मानसिक- सम्बन्धित देवता का ध्यान और जप आदि किया जाता है।
जो साधक अपने इष्ट देवता का निष्काम भाव से अर्चन करता है और लगातार उसके मंत्र का जप करता हुआ उसी का चिन्तन करता रहता है, तो उसके जितने भी सांसारिक कार्य हैं उन सबका भार मां स्वयं ही उठाती हैं और अन्ततः मोक्ष भी प्रदान करती हैं। साधना चाहे जो भी करें, निष्काम भाव से करें।
वे को भी कष्ट उठा रहे अपने पूर्व जन्मों में किये गये पापों के फलस्वरूप उठा रहे हैं।
देवी – देवता यह चाहता है कि हम मंत्र जप के द्वारा या अन्य किसी भी मार्ग से बिल्कुल ऐसे साफ-सुुथरे हो जाएं कि हमारे साथ कर्मबन्धन का कोई भी भाग शेष न रह जाए..
आत्मा की सात अवस्थाएं-
जन्म और मृत्यु के बीच और फिर मृत्यु से जन्म के बीच तीन अवस्थाएं ऐसी हैं जो अनवरत और निरंतर चलती रहती हैं। वह तीन अवस्थाएं हैं : जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति।
यह क्रम इस प्रकार चलता है- जागा हुआ व्यक्ति जब पलंग पर सोता है तो पहले स्वप्निक अवस्था में चला जाता है फिर जब नींद गहरी होती है तो वह सुषुप्ति अवस्था में होता है। इसी के उल्टे क्रम में वह सवेरा होने पर पुन: जागृत हो जाता है। व्यक्ति एक ही समय में उक्त तीनों अवस्था में भी रहता है। कुछ लोग जागते हुए भी स्वप्न देख लेते हैं अर्थात वे गहरी कल्पना में चले जाते हैं।
जो व्यक्ति उक्त तीनों अवस्था से बाहर निकलकर खुद का अस्तित्व कायम कर लेता है वही मोक्ष के, मुक्ति के और ईश्वर के सच्चे मार्ग पर है। उक्त तीन अवस्था से क्रमश: बाहर निकला जाता है। इसके लिए निरंतर ध्यान करते हुए साक्षी भाव में रहना पड़ता है तब हासिल होती है : तुरीय अवस्था, तुरीयातीत अवस्था, भगवत चेतना और ब्राह्मी चेतना।
जागृत अवस्था
वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है
जब हम भविष्य की कोई योजना बना रहे होते हैं, तो वर्तमान में नहीं रहकर कल्पना-लोक में चले जाते हैं। कल्पना का यह लोक यथार्थ नहीं एक प्रकार का स्वप्न-लोक होता है। जब हम अतीत की किसी याद में खो जाते हैं, तो हम स्मृति-लोक में चले जाते हैं। यह भी एक-दूसरे प्रकार का स्वप्न-लोक ही है।
अधिकतर लोग स्वप्न लोक में जीकर ही मर जाते हैं, वे वर्तमान में अपने जीवन का सिर्फ 10 प्रतिशत ही जी पाते हैं, तो ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।
2.स्वप्न अवस्था
जागृति और निद्रा के बीच की अवस्था को स्वप्न अवस्था कहते हैं। निद्रा में डूब जाना अर्थात सुषुप्ति अवस्था कहलाती है। स्वप्न में व्यक्ति थोड़ा जागा और थोड़ा सोया रहता है। इसमें अस्पष्ट अनुभवों और भावों का घालमेल रहता है इसलिए व्यक्ति कब कैसे स्वप्न देख ले कोई भरोसा नहीं।
यह ऐसा है कि भीड़भरे इलाके से सारी ट्रेफिक लाइटें और पुलिस को हटाकर स्ट्रीट लाइटें बंद कर देना। ऐसे में व्यक्ति को झाड़ का हिलना भी भूत के होने को दर्शाएगा या रस्सी का हिलना सांप के पीछे लगने जैसा होगा। हमारे स्वप्न दिनभर के हमारे जीवन, विचार, भाव और सुख-दुख पर आधारित होते हैं। यह किसी भी तरह का संसार रच सकते हैं।
सुषुप्ति अवस्था
गहरी नींद को सुषुप्ति कहते हैं। इस अवस्था में पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां सहित चेतना (हम स्वयं) विश्राम करते हैं। पांच ज्ञानेंद्रियां- चक्षु, श्रोत्र, रसना, घ्राण और त्वचा। पांच कर्मेंन्द्रियां- वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ और पायु।
सुषुप्ति की अवस्था चेतना की निष्क्रिय अवस्था है। यह अवस्था सुख-दुःख के अनुभवों से मुक्त होती है। इस अवस्था में किसी प्रकार के कष्ट या किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता। इस अवस्था में न तो क्रिया होती है, न क्रिया की संभावना। मृत्यु काल में अधिकतर लोग इससे और गहरी अवस्था में चले जाते हैं।
तुरीय अवस्था
चेतना की चौथी अवस्था को तुरीय चेतना कहते हैं। यह अवस्था व्यक्ति के प्रयासों से प्राप्त होती है। चेतना की इस अवस्था का न तो कोई गुण है, न ही कोई रूप। यह निर्गुण है, निराकार है। इसमें न जागृति है, न स्वप्न और न सुषुप्ति। यह निर्विचार और अतीत व भविष्य की कल्पना से परे पूर्ण जागृति है।
यह उस साफ और शांत जल की तरह है जिसका तल दिखाई देता है। तुरीय का अर्थ होता है चौथी। इसके बारे में कुछ कहने की सुविधा के लिए इसे संख्या से संबोधित करते हैं। यह पारदर्शी कांच या सिनेमा के सफेद पर्दे की तरह है जिसके ऊपर कुछ भी प्रोजेक्ट नहीं हो रहा।
जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि चेतनाएं तुरीय के पर्दे पर ही घटित होती हैं और जैसी घटित होती हैं, तुरीय चेतना उन्हें हू-ब-हू हमारे अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है। यह आधार-चेतना है। यहीं से शुरू होती है आध्यात्मिक यात्रा, क्योंकि तुरीय के इस पार संसार के दुःख तो उस पार मोक्ष का आनंद होता है। बस, छलांग लगाने की जरूरत है।
तुरीयातीत अवस्था
चेतना की इसी अवस्था को प्राप्त व्यक्ति को योगी या योगस्थ कहा जाता है।
इस अवस्था में अधिष्ठित व्यक्ति निरंतर कर्म करते हुए भी थकता नहीं। इस अवस्था में काम और आराम एक ही बिंदु पर मिल जाते हैं। इस अवस्था को प्राप्त कर लिया, तो हो गए जीवन रहते जीवन-मुक्त। इस अवस्था में व्यक्ति को स्थूल शरीर या इंद्रियों की आवश्यकता नहीं रहती। वह इनके बगैर भी सबकुछ कर सकता है। चेतना की तुरीयातीत अवस्था को ही सहज-समाधि भी कहते हैं।
भगवत चेतना
इस अवस्था में व्यक्ति से कुछ भी छुपा नहीं रहता और वह संपूर्ण जगत को भगवान की सत्ता मानने लगता है। यह एक महान सिद्ध योगी की अवस्था है ।
ब्राह्मी चेतना
भगवत चेतना के बाद व्यक्ति में ब्राह्मी चेतना का उदय होता है अर्थात कमल का पूर्ण रूप से खिल जाना। भक्त और भगवान का भेद मिट जाना। अहम् ब्रह्मास्मि और तत्वमसि अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं और यह संपूर्ण जगत ही मुझे ब्रह्म नजर आता है।
इस अवस्था को ही योग में समाधि की अवस्था कहा गया है।
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